नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक महिला के तलाक मामले में न्यायिक प्रणाली की कड़ी आलोचना की है। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में महिला और उसके बेटे के साथ न्याय नहीं हुआ। महिला की शादी 1991 में हुई थी और एक साल बाद उसने बेटे को जन्म दिया। इसके बाद पति ने उसे छोड़ दिया और तलाक के लिए पारिवारिक अदालत में अर्जी दाखिल की। कोर्ट ने तीन बार पति के पक्ष में तलाक का फैसला सुनाया, जबकि पति ने महिला या उनके बेटे के लिए कोई आर्थिक सहायता नहीं दी।
महिला ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसने कई बार पारिवारिक कोर्ट को फिर से विचार करने का आदेश दिया लेकिन हर बार पति को तलाक मिल गया। तीसरी बार, हाईकोर्ट ने पति को 20 लाख रुपए गुजारा भत्ता देने के साथ तलाक मंजूर कर लिया, जबकि स्थानीय अदालत ने महिला को 25 लाख रुपए गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सूर्यकांत और उज्जल भुयान की पीठ ने इस मामले को गंभीरता से लिया। कोर्ट ने कहा कि पति ने सालों तक महिला के साथ क्रूरता की और अपने बेटे के भविष्य की चिंता नहीं की। कोर्ट ने पारिवारिक अदालत के फैसलों की आलोचना भी की, जिसमें बार-बार पति के हक में फैसला सुनाया गया।
कोर्ट ने यह भी माना कि पति-पत्नी 1992 से अलग रह रहे हैं, इसलिए तलाक का फैसला शर्तों के साथ बरकरार रखा गया है। कोर्ट ने पति को 20 लाख रुपए की जगह 30 लाख रुपए का गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया है। साथ ही,कोर्ट ने यह भी कहा कि जिस घर में महिला, उसका बेटा और उसकी सास रहते हैं, वह उनके पास ही रहेगा और पति को उस घर में हस्तक्षेप नहीं करने दिया जाएगा। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर पति के पास कोई और संपत्ति है, तो बेटे का उस पर प्राथमिकता के आधार पर अधिकार होगा। अगर पति ने इन आदेशों का पालन नहीं करेगा, तो तलाक का फैसला रद्द कर दिया जाएगा। कोर्ट ने पति को आदेश दिया कि वह तीन महीने के अंदर गुजारा भत्ता का भुगतान करें, जिसमें 3 अगस्त, 2006 से सात फीसदी वार्षिक ब्याज भी शामिल हो। अगर पति ने समय पर भुगतान नहीं किया, तो पारिवारिक अदालत कानूनी कार्रवाई करेगी।